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अग्रसेन
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सन् १५८८ में अपने पूर्वजों के नारनौल से गया ” बिहार” आने के पहले का अग्रवंश का संक्षिप्त इतिहास

अग्रसेन

धनपाल , मोहनदास , नेमीनाथ , वृन्द , गुर्जर , महीधर आदि
मनस्वी और पुण्य – पराक्रमी राजाओं की परम्परा से पुनीत क्षत्रि – कुल में महाराजा अग्रसेन जी का जन्म हुआ ।

महाराजा अग्रसेन का जन्म काल चाहे द्वापर के शेष में हो या कलि के प्रथम चरण के आरम्भ में हो अथवा और कोई समय हो , इसमें सन्देह नहीं हो सकता कि वह समय बहुत अच्छा था । हिन्दू जाति का हीं राज्य था देश में धन था , विद्या का प्रसार था और चारो वर्ण अपने अपने कर्म से रहते थे ।
गुण – कर्म की हीं इज्जत थी ।सच्चे की कद्र थी और सभी लोग सुखी और सन्तुष्ट थे ।

ऐसे समय में बालक अग्रसेन का जन्म हुआ ।यह कहने की आवश्यकता नहीं कि सारे राज्य में आनन्द जा गया ।

युवावस्था में राज्य -भार सम्हालने के बाद चालीस बर्ष की आयु तक ब्रम्हचर्य व्रत पालन करते रहे , तत्पश्चात उन्होंने विवाह किया ।

यह एक निर्विवाद सत्य है कि महाराजा अग्रसेन ने अनेक विवाह किए ।

इस प्रकार अग्रसेन जी को गृह सुख और राज्य वैभव की कुछ भी कभी नहीं रही । राज्य की प्रजा सुखी थी और महाराज अग्रसेन की सदा जय मनाती थी । परन्तु अभी तक महाराज की कोई सन्तान नहीं थी । जिससे सब सुख होने पर भी वह फीका जान पड़ने लगा । ” गृह रत्नानी बालका: ” गृहस्थ के घर की शोभा बालक हीं होते हैं ।जिस घर में सब सुख हो पर शिशु सन्तान न हो तो तो वह वैभव खाने को दौड़ता है । उसी प्रकार जिस राजा के राज्य में आनन्द हीं आनन्द हो पर युवराज ने हो तो वह आनन्द दु:ख हीं देता है । महाराज अग्रसेन का भी यही हाल था । उनके सन्तान नहीं होने से वे बहुत दु:खी रहते थे । तब उन्होंने पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्र कामेष्टि यज्ञ करने का विचार किया । पौराणिक कथा के अनुसार महाराज अग्रसेन की १७ सत्रह रानियां एवं एक पुरानी थी ।
अठारह रानियों से सन्तान हो इस लिए महाराज ने अठारह यज्ञ करने का संकल्प किया । परन्तु यज्ञ ब्रम्ह कर्म है
सृष्टि कार्य है ।वह इसी भाव से किया जाता है कि इस यज्ञ में हम जो दान वह हमारा नहीं है , उसी का है जिसको अब दे रहे हैं । इसी लिए यज्ञ में आहुति देते समय प्रत्येक आहुति के साथ होता
” इदं न मम “कहा करता है । अर्थात यज्ञ से होने वाला फल भी “न मम” हीं है । यही भाव महाराज अग्रसेन जी का भी था , ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि यज्ञ के संकल्प के साथ उन्होंने यह भी संकल्प किया था कि यज्ञ से जो सन्तान होगी उस सन्तान का गोत्र भी यज्ञ के प्रधान आचार्य ऋषि के नाम से हो ।

महाराज ने १७ सत्रह यज्ञ
यथा विधि संपन्न किए । ये सत्रह रानियों से सन्तान पाने की इच्छा से किए गए थे और वे संपूर्ण भी हुए ।
परन्तु अठारहवां यज्ञ जब होने लगा तब अकस्मात राजा का मन फिर गया । उन्हें यज्ञ की हिंसा से बहुत ग्लानि हुई और उन्होंने कहा हमारे कुल में यद्यपि कहीं भी कोई मांस नहीं खाता
परन्तु दैवी हिंसा होती है सो आज से जो मेरे वंश में हों उसको यह मेरी आन है कि दैवी हिंसा भी न करे अर्थात पशु – यज्ञ और बलिदान भी हमारे वंश में न हो । अग्रसेन जी ने वह यज्ञ पूरा नहीं किया । इस बात की मीमांसा करके निर्णय करना हमारे अधिकार क्षेत्र के बाहर है कि यज्ञमें जीवन हिंसा कहां तक ठीक है ।

पूर्ण संकल्प के अनुसार जिस यज्ञ से जो सन्तान हुई उस यज्ञ के ऋषि के नाम से उस सन्तान का गोत्र माना गया अर्थात अठारह यज्ञों से अठारह गोत्र कायम किए गए जिसके शुद्ध नाम अब इस प्रकार अप्रभंश होकर प्रचलन में हैं ——-!

१ गर्ग २ गोयल ३ मित्तल ४ जिन्दल
५ सिंघल ६ बंसल ७ ऐरण ८कंसल ९ तुन्दल ( तिंगल )
१०कंछल ११ मंगल १२बिन्दल
१३ ढिल्लन १४ मधुकुल १५ टेरण
१६ तायल १७ नागल १८ गौण (गोलन या गोयन ) ।

गौण शब्द का अर्थ अप्रधान अर्थात मुख्य नहीं है , ऐसा है और यह गोत्र आधा भी माना जाता है । किस कारण से यह गौत्र आधा माना जाता है इसका निर्णय करना बड़ी जिम्मेदारी का काम है । यज्ञ आधा हुआ अथवा जैसा कि बताया जाता है एक बार गर्ग गोत्रियों में अनजान में सगोत्र विवाह कर लिया और तब से गर्ग गोत्र की यह शाखा फुट निकली और गौण कहलायी , कुछ भी कहना कठिन है ।
सम्भव है महाराजा अग्रसेन ने जो साढ़े सत्रह यज्ञ किए उनसे गोत्रों की संख्या अठारह होने पर भी साढ़े सत्रह मानी गयी हो । यज्ञ यद्यपि साढ़े सत्रह हुए तथापि फल तो अठारह यज्ञों का हीं हुआ । दूसरी बात यह कि आधा गोत्र कैसे हो सकता है आधे का तो कुछ मतलब हीं नहीं है ।इस लिए अठारह गोत्र हीं मानने चाहिए ।

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